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Tuesday 12 February 2019

ये जिस्म है कि मोम गलता जा रहा है


ये जिस्म है कि मोम गलता जा रहा है 
कुछ तो है जिस्म में, जलता जा रहा है 

न लहरें हैं अब न ज्वार भाटा आता है 
जिस्म का समन्दर जमता जा रहा है  

जैसे जैसे रोशनी का सफर तय किया 
अँधेरा अंदर ही अंदर बढ़ता जा रहा है 

न  इधर मंज़िल दिखाई दे न ही उधर 
फिर भी कारवाँ है कि बढ़ता जा रहा है 

तूफ़ान के आगे हैसियत कुछ भी नहीं 
चराग है कि अँधेरे से लड़ता जा रहा है 

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

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