ये जिस्म है कि मोम गलता जा रहा है
कुछ तो है जिस्म में, जलता जा रहा है
न लहरें हैं अब न ज्वार भाटा आता है
जिस्म का समन्दर जमता जा रहा है
जैसे जैसे रोशनी का सफर तय किया
अँधेरा अंदर ही अंदर बढ़ता जा रहा है
न इधर मंज़िल दिखाई दे न ही उधर
फिर भी कारवाँ है कि बढ़ता जा रहा है
तूफ़ान के आगे हैसियत कुछ भी नहीं
चराग है कि अँधेरे से लड़ता जा रहा है
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
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