मोबाइल पे मेसेज फ़्लैश होते ही, जया ने ओपन किया।
" जया जी, जब भी आप अपने को शांत और संयत पायें। अपने न ख़त्म होने वाले दुःख से थोड़ा भी उबर पायें तो बताइयेगा ...."
पहले तो जया राज के इस छोटे से संयत और बहुत कुछ कहते हुए मेसेज को देर तक देखती रही, फिर डबडबाई आँखों और काफी प्रयास
से संयत की उसकी उँगलियाँ की पैड पे चलने लगीं।
"राज जी ! मुझे नहीं पता मै कब उबर पाऊँगी अपने इस दुःख से या उबर पाऊँगी भी या नहीं और अगर उबरी भी तो क्या अपने को इतना संयत और शांत
कर पाऊँगी कि आपसे बात कर सकूँ।
निःसंदेह आप एक सुलझे और संयत इंसान हैं। शायद यही वजह रही आप सोशल मीडिया से मिले इतने सारे मित्रों में से आप से ही इतना बात कर लेती थी।
किन्तु पहले की बात कुछ और थी। पर इस हादसे के बाद से मेरे माँ या बेटा या कोई न कोई रिश्तेदार मेरे आस पास रहता ही है। मेरी निजता के साथ साथ मेरा मोबाइल भी सार्वजानिक हो गया है। इधर उधर कंही भी पड़ा रहता है - वैसे भी अब इसकी मुझे ज़रूरत नहीं फिलहाल। लिहाज़ा आप बार बार मेसज न करें।
यदि कभी लगा मुझे आप से बात करनी है, तो खुद ब खुद मेसज करूंगी या फ़ोन करूंगी। सॉरी ......, अन्यथा मत लीजियेगा। वैसे भी सांत्वना और सहानभूति के शब्द सुन सुन के उलझन होती है। फिलहाल मै एकांत चाहती हूँ - "
मेसज सेंड कर के जया ने अपनी डबडबाई आँखे पोछी, और मोबाइल सरका कर अपना सिर सोफे की बैक से टिका के आँखे बंद कर ली।
जया इस वक़्त अपनी घुटी जुटी रुलाई और घड़ी की टिक टिक के बीच सिर्फ और सिर्फ - अपने और रवि के बारे में सोचना चाहती थी -और उन पलों में फिर से जीना चाहती थी, जो पल फिर से न लौट के आने के लिए जा चुके थे।
" जया जी, जब भी आप अपने को शांत और संयत पायें। अपने न ख़त्म होने वाले दुःख से थोड़ा भी उबर पायें तो बताइयेगा ...."
पहले तो जया राज के इस छोटे से संयत और बहुत कुछ कहते हुए मेसेज को देर तक देखती रही, फिर डबडबाई आँखों और काफी प्रयास
से संयत की उसकी उँगलियाँ की पैड पे चलने लगीं।
"राज जी ! मुझे नहीं पता मै कब उबर पाऊँगी अपने इस दुःख से या उबर पाऊँगी भी या नहीं और अगर उबरी भी तो क्या अपने को इतना संयत और शांत
कर पाऊँगी कि आपसे बात कर सकूँ।
निःसंदेह आप एक सुलझे और संयत इंसान हैं। शायद यही वजह रही आप सोशल मीडिया से मिले इतने सारे मित्रों में से आप से ही इतना बात कर लेती थी।
किन्तु पहले की बात कुछ और थी। पर इस हादसे के बाद से मेरे माँ या बेटा या कोई न कोई रिश्तेदार मेरे आस पास रहता ही है। मेरी निजता के साथ साथ मेरा मोबाइल भी सार्वजानिक हो गया है। इधर उधर कंही भी पड़ा रहता है - वैसे भी अब इसकी मुझे ज़रूरत नहीं फिलहाल। लिहाज़ा आप बार बार मेसज न करें।
यदि कभी लगा मुझे आप से बात करनी है, तो खुद ब खुद मेसज करूंगी या फ़ोन करूंगी। सॉरी ......, अन्यथा मत लीजियेगा। वैसे भी सांत्वना और सहानभूति के शब्द सुन सुन के उलझन होती है। फिलहाल मै एकांत चाहती हूँ - "
मेसज सेंड कर के जया ने अपनी डबडबाई आँखे पोछी, और मोबाइल सरका कर अपना सिर सोफे की बैक से टिका के आँखे बंद कर ली।
जया इस वक़्त अपनी घुटी जुटी रुलाई और घड़ी की टिक टिक के बीच सिर्फ और सिर्फ - अपने और रवि के बारे में सोचना चाहती थी -और उन पलों में फिर से जीना चाहती थी, जो पल फिर से न लौट के आने के लिए जा चुके थे।
No comments:
Post a Comment