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Thursday, 21 November 2019

समेटने की नाकाम कोशिशों में लगी हूँ,

अवि,
अपने को समेटने की
नाकाम कोशिशों में लगी हूँ,
जितना समेटती हूँ
उतना ही बिखर जाती हूँ
दिन में समेटती हूँ तो रात बिखर जाती हूँ
रात करवटों में समेटती हूँ तो
दिन में बिखर जाती हूँ
सच ! अब तो उम्मीद भी छोड़ दी है
खुद को समेटने की
अगर कुछ टुकड़ों में ही टूटी होती तो
शायद अपने आँचल में आँसुओ संग समेट लेती
अगर रेत् सी ज़र्रा - ज़र्रा हो के बिखरी होती
तो भी शायद अंजुरी में समेट लेती
और एक मुट्ठी यादों की रेत् के सहारे ही जी लेती
लेकिन, अब तो रोज़ रोज़ इतने हिस्से में टूट चुकी हूँ
इतना बिखर चुकी हूँ
की शायद मेरे वज़ूद के सारे हिस्से टूट टूट के
शून्य में विलीन हो गए हैं - तुम्हारी ही तरह
शायद , इस शून्य को भी अपनी आखों में समेट लेती पर
तुम्हारी उन यादों को कैसे समेटूँ
तुम्हारे शायद बिताये इतने खूबसूरत लम्हों को कैसे समेटूँ
तुम्हारी सारी पर्सनल बिलोंगिंग्स को कैसे समेटूँ
जिनमे तुम्हारे सपर्श की खुशबू है
जिन्हे तुमने इस्तेमाल किया है
चाहे वो तुम्हारी पसंदीदा कमीज हो - ट्रॉउज़र हों
जूते, मोज़े - घर में पहनने वाली स्लीपर हो
शेविंग किट हो तुम्हरे पहने हुए जाड़े के सूट हों
सच उन्हें कैसे समेटूंगी
समेटूंगी भी तो उन्हें कहाँ रखूंगी बताओ न अवि ?
चुप क्यों हो ?
बोलते क्यूँ नहीं तुम्हारी ये नीना अकेले कैसे
समेटेगी वे सारे साज़ो सामान
वे सारे तिनके जिन्हे तुमने शौक से ला ला के
इकठ्ठा कर- कर आशियाने को सजाया था
कैसे उतारूंगी उन परदों को  जिनकी ओट में
तुम मुझे लपेट लेते थे दुनिया की सारी बुरी बालाओं से
कैसे मै उस डाइनिंग टेबल को - सोफे को -
डबल बेड को सच क्या क्या समेटूं कैसे समेटूँ
सच ये सब जितना सोचती हूँ
उतना ही टूट जाती हूँ
उतना ही बिखर जाती हूँ
वैसे भी मेरे लिए तो तुम सारी दुनिया थे
सारा ब्रह्माण्ड थे
और सारे ब्रह्माण्ड को कौन समेट पाया है ?
खैर , तुम उदास मत होना
बस जहां कंही भी बस वहां से इतनी हिम्मत देते रहना
कि खुद को बस इतना समेट पाऊँ
कि ईशु की ज़िम्मेदारी निभा सकूँ - बस
फिर खुद ब खुद बिखर जाऊँगी उसी शून्य में
जिस शून्य में तुम बिखर गए हो समां गए हो

(चूँकि , आँखे डबडबा चुकी हैं
उँगलियाँ साथ छोड़ रही हैं शब्दों का
इस लिए बस इतना ही)
वैसे भी कल की तैयारी करनी है -
कुछ और हिस्सों में टूटने की
बिखरने की

तुम्हारी नीना ..... 









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