कहीं से दरका तो कहीं से उखड़ा हुआ हूँ
छू कर तो देख हर जगह से टूटा हुआ हूँ
काँच का नहीं पारे का जिस्म था अपना
टूट कर हज़ार हिस्सों में बिखरा हुआ हूँ
इक बार ही तेरे शहर आया तुझसे मिला
बाद उसके तेरी गलियों में भटका हुआ हूँ
कौन सा सिरा पकड़ूँ के अपनी बार करूँ
पतंग के मांझे से बेतरह उलझा हुआ हूँ
ज़माने से बताता हूँ शब इक परी से मिला
तो ज़माना कहता है कि मै बहका हुआ हूँ
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
उम्दा ग़ज़ल।
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