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Wednesday, 25 November 2020

कहीं से दरका तो कहीं से उखड़ा हुआ हूँ

 कहीं से दरका तो कहीं से उखड़ा हुआ हूँ 

छू कर तो देख हर जगह से टूटा हुआ हूँ 


काँच का नहीं पारे का जिस्म था अपना 

टूट कर हज़ार हिस्सों में बिखरा हुआ हूँ 


इक बार ही तेरे शहर आया तुझसे मिला 

बाद उसके तेरी गलियों में भटका हुआ हूँ 


कौन सा सिरा पकड़ूँ के अपनी बार करूँ 

पतंग के मांझे से बेतरह उलझा हुआ हूँ 


ज़माने से बताता हूँ शब इक परी से मिला 

तो ज़माना कहता है कि मै बहका हुआ हूँ 


मुकेश इलाहाबादी -----------------------

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