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Friday, 27 November 2020

सांझ, नदी सा बह रही है

 सांझ,

हौले-हौले 

नदी सा बह रही है 

तुम्हारी यादो की नाव 

जगर- मगर कर रही है

फलक पे

ठिठका हुआ चाँद है

दूर 

पपीहा देर से 

चाँद के इंतजार मे है 


सांझ की नदी ने 

रात का स्याह दुशाला ओढ़ लिया है 

अब वह इक बर्फ की नदी है 

ठिठका हुआ चाँद जो 

नदी में उतरना चाहता था 

उसने ठहरी हुई नदी की बर्फ देख 

अपना इरादा मुल्तवी कर दिया है 

चाँद, अब बादलों की ओट में है 

सितारे भी 

उदास हो के 

अपनी अपनी माँद में जा चुके हैं 


उधर 


इन सब से बेखबर 

फाख्ता चिड़िया 

अपने चिड़े के डैनो में चोंच घुसा के 

आँखे बंद कर ली है 

रोशन दान के घोसले में 

कबूतरी - कबूतर के साथ गुंटूर - गुं कर के 

बगलबीर हो के सो चुकी है 


दूर ,,,,


भक्त भी निर्गुण गा के समाधि में लीन हो चुका है 

और 

अब मै भी उदासी और नाउम्मीदी की चादर ओढ़ 

उतर जाऊँगा 


रात की ठहरी हुई बर्फीली नदी में 


मुकेश इलाहाबादी ----------------------






1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (29-11-2020) को  "असम्भव कुछ भी नहीं"  (चर्चा अंक-3900)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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