तुझसे जो रिश्ता है उसको क्या नाम दूँ
सोचता हूं इस फ़साने को क्या अंजाम दूँ
बदन को हिस्सा -हिस्सा थकन से चूर है
कहीं छाँह मिले तो जिस्म को आराम दूँ
जिंदगी इक पल को फुर्सत नहीं देती कि
तुम्हे भी कोइ सुहानी दोपहर या शाम दूँ
किसी रोज तुम हवाओं संग खुशबू भेजो
और मै ये सोचूँ अब तुम्हे क्या पैगाम दूँ
मुकेश इलाहाबादी --------------------
मुग्ध करती रचना।
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