नदी को जानना आसान नहीं
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यूँ ही
एक दिन मैंने नदी से पूछा
"तुम कौन हो,,,,? "
नदी मुस्कुराई
और तंज़ से बोली
"सुनो कविवर,
नदी को सिर्फ
नदी के किनारे
किसी पेड़ सा खड़े हो कर
श्रद्धा से
आचमन भर कर लेने से
या फिर
नदी में पाँव पखार लेने भर से
नदी को न जान पाओगे
यहाँ तक कि
नदी को बिलकुल भी न जान पाओगे
नदी के जिस्म में
मगरमच्छ सा उम्र भर इठलाते रहने भर से
या कि
मुर्दा शब्दों से
कुछ मीठी - मीठी कवितायेँ लिख लेने भर से
नहीं जान पाओगे
तुम नदी को,
नदी को जानने के लिए
बर्फ का पहाड़ बन के
बूँद - बूँद पिघलना होगा
नदी में मिलना होगा
या फिर
बादल बन बरसनां होगा
या फिर
समंदर सा भव्य और
गहरा होना होगा
तो ही नदी
खुद - ब खुद
दौड़ती हुई तुम्हारी बाहों में
हरहरा कर समां जाएगी
हमेशा - हमेशा के लिए
और करती रहेगी केलि
हर पूनम की रात्रि
चाँद और सूरज की छाँव में
और शायद तब ही तुम
थोड़ा बहुत जान पाओ नदी को
क्यूँ की नदी को
जानना आसान नहीं है
नदी को जानने के लिए नदी ही बनना होगा "
यह कह कर ,
नदी इठलाती हुई आगे बढ़ गयी
और मै वहीं का वहीँ
ठिठका खड़ा हूँ
अपनी कलम और अल्फ़ाज़ों के साथ
मुकेश इलाहाबादी -----------------
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