मै
कोई सूरज थोड़े ही हूँ
कि दिन भर की थकन के बाद
रात मुझे ओढ़ के सो जाए
मुझे तो चमकना होता है
हर रोज़
हर रात
आकाश के उत्तरी ध्रुव पे
और निहारना होता है
अपनी धरती को
जो लाखों प्रकाशवर्ष की दूरी पे
नाच रही होती है
अपना सतरंगी आँचल ओढ़े
मस्ती से
आवारा चाँद के लिए
(सुमी से ,,,,,,,,,,,)
मुकेश इलाहाबादी -----------
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