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Saturday, 31 March 2018

राख को बार बार न कुरेदा जाए

राख को बार बार न कुरेदा जाए
बुझी आग को न भड़काया जाए

आओ, बादलों के पार उड़ा जाए
रूठे हुए चन्दा को, मनाया जाए

टहलते हुए नदी किनारे चलते हैं
कंधे से कंधा जोड़ कर बैठा जाए

मौत से भी ठंडी खामोशी क्यूँ हैं
कोई कहानी किस्सा छेड़ा जाये

आ फिर से बचपना  जिया जाये
मिल के छुपम छुपाई खेला जाये

सुना दोस्ती के पार बागे इश्क़ है
आ कुछ दिन वँहा भी ठहरा जाए

मुकेश शहर में तो बहुत रह लिए
कुछ दिन तो जंगल में रहा जाये

मुकेश इलाहाबादी -------------

Friday, 30 March 2018

पीली, लाल, हरी, नारंगी देखा

पीली, लाल, हरी, नारंगी देखा
हमने दुनिया रंग बिरंगी देखा

जब से सात सुरों को साधा तो
तन तम्बूरा मन सारंगी देखा

हैं बातों में कुछ, कर्मों में कुछ
चाल बड़ों बड़ों की दुरंगी देखा

मुकेश इलाहाबादी ---------

उधर तेरी आँखों में इक नीली झील बहती है

उधर तेरी आँखों में इक नीली झील बहती है 
इधर, मेरे होंठो में इक प्यास निहाँ रहती है 
ज़िंदगी जब कभी फुर्सत देती है पल दो पल 
जाने क्या क्या मुझसे मेरी तन्हाई कहती है 
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Thursday, 29 March 2018

जी तो चाहता हैं बाँहों में ले कर देखूं


जी तो चाहता हैं बाँहों में ले कर देखूं
चाँद फ़लक़ से उतरे तो जी भर देखूँ

ख़ुदा ! ऐसा कर मुझे परिंदा बना दे
बादलों के पार जा तुम्हारा घर देखूं

तुझे इक बार देख कर जी न भरेगा
जी तो चाहे है तुझे शामो-सहर देखूँ

तेरी तस्वीर लगा रखी है हर तरफ
मुकेश सिर्फ तुझे देखूँ, जिधर देखूँ


मुकेश इलाहाबादी -------------------

अस्मा पे देखा तो सूरज गायब


अस्मा पे देखा तो सूरज गायब
रात के पहलू से महताब गायब

ज़माना देखता हूँ, हैरत होती है
इंसानों के धड़ हैं पर सर ग़ायब

छटपटा रहे हैं अपने घोंसलों में
परिंदों के जिस्म से पर गायब

मै इक दिन इश्क़ करने निकला
दिखा ! मेरे सीने से दिल गायब

दिहाड़ी से लौटे मज़दूर तो उन्हें
बस्ती में मिला अपना घर ग़ायब

मुकेश इलाहाबादी --------------

कोई अपना हुआ या न हुआ करे

कोई अपना हुआ या न हुआ करे
रब मगर सब की खैर किया करे

भले जेठ बैसाख सूरज तपा करे
जेठ बैसाख तो बादल बरसा करे

यूँ तो शख्श मसरूफ है आजकल
मगर तीज त्यौहार तो मिला करे

भले कोई हमारा कितना बुरा करे
दिल अपना सब के लिए दुआ करे

सच व आन बान के लिए तना रहे
सिर मग़र बड़ों के आगे झुका रहे

मुकेश इलाहाबादी --------------

Wednesday, 28 March 2018

मेरे हाथों में चाबुक नहीं है

अच्छा है
मेरे हाथों में चाबुक नहीं है
वरना न जाने कितने घोड़े जो
सरपट सरपट दौड़ रहे हैं
मेरी चाबुक से लहू लुहान हो चुके होते
वज़ह उनकी कम रफ़्तार नहीं
वज़ह मेरे हिसाब से न दौड़ने की होती

अच्छा हुआ मेरे हाथों में चाबुक नहीं है
वरना न जाने कितने निर्दोष सिर्फ इस बात पे
चाबुक खा चुके होते कि वे दूसरों के रथ में क्यूँ जुते हैं ?

सिर्फ घोड़े ही क्यूँ अगर मेरे हाथ में भी चाबुक होती तो
गधों को भी मार मार के घोडा बना के अपने हिसाब से हाँकता
और अच्छे से अच्छे घोड़ों को भी चाबुक के दम पे गधा बना चूका होता

और विकास की रफ़्तार में सभी गधे और घोड़े सरपट सरपट दौड़ रहे होते

खैर ! फ़िलहाल मेरे पास सिर्फ शब्दों की चाबुक है
जिससे कभी खुद को तो कभी कागज़ को लहूलुहान कर रहा हूँ

वैसे मैंने सुना है, ईश्वर के पास भी एक चाबुक होती है
जो सब को नहीं दिखती - अदृश्य रहती है
जिसकी मार से कोई बच नहीं सकता
चाहे कितना भी सयाना घोडा या घुड़सवार क्यूँ न हो

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------